Tuesday 26 April 2011

भारत ने 9 साल में गंवाए 4,725 अरब रुपये

विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन को वापस लाने की मांग फिर से जोर पकड़ रही है, देश से धन की अवैध निकासी के बारे में कुछ चौंकाने वाली बातें एक अमेरिकी रिपोर्ट में सामने आई हैं। ग्लोबल फाइनेंशल इंटीग्रिटी नाम के थिंक टैंक की इस रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2000 से 2008 के बीच करीब 104 अरब डॉलर (करीब 4,725 अरब रुपये से ज़्यादा) धन अवैध तरीके से भारत से बाहर गया है। अगर इस रकम की तुलना हम भारत के बजट के संदर्भ में करें तो यह 2010-11 के लिए तय एजुकेशन बजट के भी करीब दस गुना ठहरता है।

नौ साल में धन की अवैध निकासी के मामले में एशिया के पांच अव्वल देशों में भारत का पांचवां नंबर था, जबकि चीन पहले, मलयेशिया दूसरे, फ़िलिपीन तीसरे और इंडोनेशिया चौथे नंबर पर 
है। 

Sunday 24 April 2011

युवाओं में नई जागरूकता

अन्ना हज़ारे के आंदोलन ने अचानक युवाओं को जिस तेज़ी से अपनी ओर खींचा, उससे राजनीतिक दिग्गज़ भी हैरान रह गए। आज हमारा युवा ख़ुद से बहुत ज़्यादा उम्मीद रखता है। वह काफ़ी कुछ पाना चाहता है। कई बार उसे पता नहीं होता कि सही रास्ते कौन-से हैं। यह बताने वाला सही रोल मॉडल भी युवा के पास नहीं है।

अन्ना हज़ारे के आंदोलन ने युवाओं को आकर्षित किया तो कुछ ख़ास वजहें थीं। अन्ना ने सीधी-साफ़ और दो टूक चीज़ की मांग की - जन लोकपाल बिल। उनकी भूख हड़ताल एक रियलिटी ड्रामे की तरह थी। ड्रामा लोगों को खींच रहा था। तीसरी बात यह कि कुछ ऐसी हस्तियां उनके साथ थीं जिनका अपना संगठन है और जिन्हें युवा आइडल मानता है जैसे किरण बेदी, श्रीश्री रविशंकर, बाबा रामदेव। अन्ना ने सीधे-सीधे अच्छाई और बुराई के बीच लकीर खींच दी। बिना किसी डर या दुर्भावना के उन्होंने इस लकीर की दूसरी तरफ़ खड़े नेताओं की ओर इशारा किया।

इसने भी आग में घी का काम किया। सबसे अहम बात यह कि भ्रष्टाचार से पूरा देश त्रस्त है, जिससे युवा देश के अन्य लोगों की तरह आंदोलन की तरफ़ खिंचा चला आया। ख़ुद अन्ना के सीधे-सादे और ईमानदार व्यक्तित्व का भी इसमें योगदान था। वह सत्ताधारियों के साथ नहीं खड़े थे। राजनीतिज्ञों को खदेड़े जाने ने भी बिजली सरीखा असर किया। इससे युवा में यह संदेश गया कि यह बंदा जनता के लिए काम करेगा। इसका निजी कोई स्वार्थ नहीं। कॉमनवेल्थ खेल के वक़्त से ही घोटालों का जो सिलसिला शुरू हुआ, तभी से सभी के अंदर एक गुस्सा था कि तुमने देश का नाम ख़राब क्यों किया। 
सरकार हफ़्ते की देरी करती तो यह बड़ा रूप ले सकता था और ख़तरनाक हो सकता था। अहम बात यह है कि बीस-पच्चीस साल पहले जन्मे युवा ने इस आंदोलन के ज़रिये राजनीति का पहला स्वाद चखा है। उसने कम से कम अपनी ताकत को पहचाना है। ज़रूरत इस बात की है कि वह इस ताकत का सही इस्तेमाल भी जाने।

लोगों को बदलाव चाहिए। ख़ास तौर पर युवाओं को तुरंत बदलाव चाहिए। बदलाव शांति से नहीं आता तो युवाओं का क्रोध हिंसा में बदल जाता है। आंदोलन से युवाओं की सोच में ज़बरदस्त बदलाव आया है। आज छोटे-छोटे बच्चे अन्ना हज़ारे को गांधी के रूप में देखते हैं। अन्ना बापू की तरह अड़ियल भी है, नर्म भी, निडर भी।

जन लोकपाल बिल भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अहम बिल है। कई देशों में ऐसी ही निष्पक्ष और ताकतवर संस्था भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे सत्ताधीशों की जांच करती है। हांगकांग का उदाहरण सामने है। आज़ादी का मतलब यह नहीं कि यह सत्ताधीशों की आज़ादी है। एक बार चुने गए तो आप ख़ुद ही पुलिस स्टेशन हैं और ख़ुद ही कानून हैं। आज़ादी का यह मतलब नहीं कि सत्ताधारियों पर अंकुश के कानून न बनाए जाएं।

इस आंदोलन से अगर युवाओं और लोगों ने पॉवर का स्वाद चखा है, तो नेताओं ने पॉवर की सीमा का स्वाद चखा है। अगर प्रभावी लोकपाल के गठन में गतिरोध आता है, तो युवा तभी फिर अन्ना के आंदोलन में उतरेंगे जब अन्ना यह बताने में सफल रहें कि क्या ग़लत हुआ है और कौन लोग असरदार लोकपाल नहीं बनने दे रहे हैं। तब निश्चय ही लोग फिर जुड़ेंगे। हालांकि यह ठीक इसी स्तर पर शायद न हो।

एक बार जो हो जाता है, वह वैसा ही दोबारा घटित नहीं होता। अगले आंदोलन की शक्ल अलग होगी। वैसे सरकार अब ऐसा कुछ नहीं करेगी कि अन्ना को फिर अनशन जैसा निर्णय लेना पड़े, क्योंकि नेताओं में डर पैदा हो गया है कि अगर वे भ्रष्टाचार के समर्थन में खड़े दिखाई दिए तो उनके नीचे से समर्थन खिसक जाएगा। प्रभावी लोकपाल जनता का हक है, अब जनता को बहलाया-फुसलाया नहीं जा सकता, यह नेता समझ चुके हैं।

इस आंदोलन को राजनीतिज्ञों के ऊपर अंकुश की तरह काम करना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि इसका स्वरूप और शक्ति ऐसी है कि यह एक और राजनीतिक पार्टी बन जाए। यह पार्टियों पर दबाव बनाए रखने का रचनात्मक काम कर सकता है। यदि अच्छा लोकपाल हो और कई भ्रष्ट नेता जेल जाएं, तो भ्रष्टाचार के ख़त्म होने की संभावना अभी बनी हुई है। यदि हर साल हर पार्टी अपने यहां से दस प्रतिशत सबसे भ्रष्ट नेताओं को निकालती जाए और दस प्रतिशत सही उम्मीदवार चुने, तो संभव है कि अगले दस सालों में पार्टियों का नया रंगरूप हो।

इसके लिए कई अन्य चीज़ें करने की ज़रूरत है। मिसाल के लिए, चुनावों के दौरान लीगल एलेकशन फंडिंग का एक तरीका हो, जिससे चुनाव में काले-सफेद धन को लेकर पारदर्शिता आए। ज़मीनी राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए भी वाजिब सेलेरी या पारिश्रमिक हो, ताकि वह दूसरे ग़लत फ़ायदों के लिए पार्टियों के साथ न जाए। इन सब चीजों के लिए वातावरण और दबाव बनाने का काम यह आंदोलन करे, न कि ख़ुद एक राजनीतिक पार्टी बने।

Saturday 23 April 2011

भारत विकास की राह पर

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) में लक्ष्य होगा आर्थिक विकास की सालाना दर 9 से 9.5 फीसदी रखना, 100 फीसदी साक्षरता दर हासिल करना और विकास को समावेशी बनाना। इन लक्ष्यों से सहमत होते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का सुझाव है कि विकास को समावेशी बनाने के लिए अगली योजना में लक्ष्य ऐसे तय होने चाहिए, जिनकी निगरानी की जा सके। फिर उचित नीति एवं कोष आवंटन के साथ उन लक्ष्यों को पाने की कोशिश की जानी चाहिए।

11वीं योजना में भारत ने ऊंची आर्थिक विकास दर हासिल की। अंतरराष्ट्रीय मंदी और सूखे की स्थितियों के बावजूद यह दर 8.2 फीसदी रही। इस सफलता ने भारत को एक मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया है। फिर भी यह कामयाबी अधूरी लगती है, क्योंकि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी बेहद गरीब है। जिस दिन योजना आयोग की पूर्ण बैठक में प्रधानमंत्री ने विकास को समावेशी बनाने पर जोर दिया, उसके ठीक एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आगाह किया था कि हम दो तरह के भारत को कायम नहीं रहने दे सकते।

हम दुनिया को बताना चाहते हैं कि भारत दुनिया की सबसे मजबूत उभरती अर्थव्यवस्था है, लेकिन करोड़ों गरीबों की मौजूदगी विरोधाभास पैदा करती है। इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने गरीबी मापने की योजना आयोग की कसौटियों की भी आलोचना की, मगर यह विडंबना ही है कि उसी दिन योजना आयोग ने एलान किया कि देश में गरीबों की संख्या पांच फीसदी गिरकर अब 32 फीसदी रह गई है। सरकार समावेशी विकास की बात करती है, लेकिन इस बुनियादी पहलू को वह आज तक हल नहीं कर सकी है। क्या बारहवीं योजना के दौरान यह हो सकेगा? यदि नहीं तो फिर तमाम तय लक्ष्य हासिल होने के बावजूद दो तरह के भारत के बीच की खाई नहीं पाटी जा सकेगी और हमारे विकास की कहानी अधूरी रहेगी।

दो राष्ट्रपति के बीच ऐसा संयोग


अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन और जॉन एफ़ केनेडी, इन दोनों की ही उनके पद पर रहते हत्या कर दी गई थी। इन दोनों को ही देश की जनता अपना हीरो मानती थी, लेकिन कुछ लोग थे जो इनके विचारों से सहमत नही थे।
जब 22 नवम्बर 1963 को जॉन एफ़ कैनेडी की हत्या की गई तो अचानक ही अब्राहम लिंकन की हत्या के साथ इनकी तुलना की जाने लगी। और इसके बाद जो तथ्य सामने आए वो एक अनोखे संयोग की कहानी बयां करते हैं।
- लिंकन 1846 में कांग्रेस के लिए निर्वाचित हुए थे जबकि ठीक 100 साल बाद यानि 1946 को कैनेडी भी कांग्रेस के लिए निर्वाचित हुए।
- लिंकन 1860 में अमेरिका के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए जबकि 1960 में कैनेडी भी इसी पद पर सत्तासीन हुए।
- दोनों ही राष्ट्रपतियों की पत्नियों ने वाइट हाउस प्रवास के दौरान अपने एक बच्चे को खो दिया था।
- लिंकन को अमेरिका में नागरिक अधिकारों के लिए जाना जाता था जबकि कैनेडी ने भी नागरिक अधिकारों के लिए गंभीर प्रयास किए।
- लिंकन का एक सचिव हुआ करता था जिसका नाम कैनेडी था जबकि  कैनेडी के सचिव का नाम लिंकन था।
- दोनों ही राष्ट्रपतियों की हत्या उनकी पत्निओं की मौजूदगी में की गई।
- दोनों की मौत सिर के पिछले हिस्से में गोली लगने से हुई।
- दोनों के ही हत्यारों के तीन उपनाम थे और उनके नाम में अंग्रेजी के पंद्रह लेटर थे।
- लिंकन को थिएटर के अंदर गोली लगी और वो गिरते हुए बाहर आए थे जबकि कैनेडी गोली लगने के बाद गिरते हुए थिएटर के अंदर गए थे।
- दोनों के ही हत्यारों की ट्रायल पर जाने से पहले ही हत्या कर दी गई थी।
- ऐसा माना जाता है कि दोनों राष्ट्रपतियों की हत्या के पीछे एक भीषड़ षड़यंत्र था।
- दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों के सरनेम भी एक थे। लिंकन के उत्तराधिकारी का नाम एंड्रयू जॉनसन था जबकि कैनेडी का उत्तराधिकारी लिंडन जॉनसन था।