Saturday 20 August 2011

भ्रष्‍टाचार मिटाने की शुरुआत खुद से


आज सारी दुनिया जिस मुल्क को, जिस मुल्क की तरक़्क़ी को आदर और सम्मान के साथ देख रही है, वह भारत है. लोग कहते हैं कि हिंदुस्तान में सब कुछ मिलता है, जी हां हमारे पास सब कुछ है.  लेकिन हमें यह कहते हुए शर्म भी आती है और अफ़सोस भी होता है कि हमारे पास ईमानदारी नहीं है. हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भ्रष्टाचार कितनी गहराई तक उतर चुका है और किस तरह से बेईमानी एक राष्ट्रीय मजबूरी बनकर हमारी नसों में समा चुकी है इसका सही अंदाज़ा करने के लिए मैं आपको एक कहानी सुनाना चाहता हूं.
एक गांव के स्कूल में इंटरवल के दौरान एक कुल्फी बेचने वाला अपनी साइकिल पर आता था और बच्चों में कुल्फियां बेचा करता था. उसका रोज़गार और बच्चों की पसंद, दोनों एक दूसरे की ज़रूरत थे. इंटरवल में उसकी साइकिल के चारों तरफ़ भीड़ लग जाती. ऐसे में कुछ शरारती लोग उसकी आंख घूमते ही कुल्फ़ी के डिब्बे में हाथ डाल कर कुछ कुल्फियां ले उड़ते. कुल्फियां कम होने का शक तो उसे होता, लेकिन रंगे हाथ न पकड़ पाने की वजह से वह कुछ कर नहीं पाता था.
एक दिन उसने एक अजनबी हाथ को तब पकड़ लिया जब वह डिब्बे में ही था. वह लड़ पड़ा, तो इस लड़ाई का फ़ायदा उठाकर कुछ और हाथों ने सफ़ाई दिखा दी. यह देखकर कुल्फ़ीवाले ने अपना आपा खो दिया. फिर तो लूटने वालों के हौसले और बुलंद हो गये. जब क़ुल्फ़ीवाले को यह अहसास हुआ कि उसकी सारी कुल्फ़ियां लुट जाएंगी तो वह भी लूटने वालों में शामिल हो गया और अपने दोनों हाथों में जितनी भी क़ुल्फियां आ सकती थीं उन्हें लूट-लूट कर जल्दी जल्दी खाने लगा.
जी हां, हमारे यहां बेईमानी, भ्रष्टाचार और खुली लूट का यही आलम हैं. इससे पहले कि कोई दूसरा लूट ले. हम ख़ुद ही ख़ुद को लूट रहे हैं.
जुर्म, वारदात, नाइंसाफ़ी, बेईमानी और भ्रष्टाचार का सैकड़ों साल पुराना क़िस्सा नई पोशाक पहनकर एकबार फिर हमारे दिलों पर दस्तक दे रहा है. रगों में लहू बन कर उतर चुका भ्रष्टाचार का कैंसर. आखिरी ऑपरेशन की मांग कर रहा है. अवाम सियासत के बीज बोकर हुकूमत की रोटियां सेंकने वाले भ्रष्ट नेताओं के मुस्तकबिल का फैसला करना चाहती है. ये गुस्सा एक मिसाल है कि हजारों मोमबत्तियां जब एक मकसद के लिए एक साथ जल उठती हैं तो हिंदुस्तान का हिंदुस्तानियत पर यकीन और बढ़ जाता है.
बेईमान सियासत के इस न ख़त्म होने वाले दंगल में अक़ीदत और ईमानदारी दोनों थक कर चूर हो चुके हैं. मगर फिर भी बेईमान नेताओं, मंत्रियों, अफसरों और बाबुओं की बेशर्मी को देखते हुए लड़ने पर मजबूर हैं. बेईमान और शातिर सियासतदानों की नापाक चालें हमें चाहे जितना जख़्मी कर जाएं. हमारे मुल्क के 'अन्ना' हजारों के आगे दम तोड़ देती हैं.
महंगाई, ग़रीबी, भूख और बेरोज़गारी जैसे अहम मुद्दों से रोज़ाना और लगातार जूझती देश की अवाम के सामने भ्रष्टाचार
इस वक्त सबसे बड़ा मुद्दा और सबसे खतरनाक बीमारी है. अगर इस बीमारी से हम पार पा गए तो यकीन मानिए सोने की चिड़िया वाला वही सुनहरा हिंदुस्तान एक बार फिर हम सबकी नजरों के सामने होगा. पर क्या ऐसा हो पाएगा? क्या आप ऐसा कर पाएंगे? जी हां, हम आप से पूछ रहे हैं. क्योंकि सिर्फ क्रांति की मशालें जला कर, नारे लगा कर, आमरण अनशन पर बैठ कर या सरकार को झुका कर आप भ्रष्टाचार की जंग नहीं जीत सकते. इस जंग को जीतने के लिए खुद आपका बदलना जरूरी है. क्योंकि भ्रष्टाचार और बेईमानी को बढ़ावा देने में आप भी कम गुनहगार नहीं हैं.
मंदिर में दर्शन के लिए, स्कूल अस्पताल में एडमिशन के लिए, ट्रेन में रिजर्वेशन के लिए, राशनकार्ड, लाइसेंस, पासपोर्ट के लिए, नौकरी के लिए, रेड लाइट पर चालान से बचने के लिए, मुकदमा जीतने और हारने के लिए, खाने के लिए, पीने के लिए, कांट्रैक्ट लेने के लिए, यहां तक कि सांस लेने के लिए भी आप ही तो रिश्वत देते हैं. अरे और तो और अपने बच्चों तक को आप ही तो रिश्वत लेना और देना सिखाते हैं. इम्तेहान में पास हुए तो घड़ी नहीं तो छड़ी.
अब आप ही बताएं कि क्या गुनहगार सिर्फ नेता, अफसर और बाबू हैं? आप एक बार ठान कर तो देखिए कि आज के बाद किसी को रिश्वत नहीं देंगे. फिर देखिए ये भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी कैसे खत्म होते हैं.
आंकड़े कहते हैं कि 2009 में भारत में अपने-अपने काम निकलवाने के लिए 54 फीसदी हिंदुस्तानियों ने रिश्वत दी. आंकड़े कहते हैं कि एशियाई प्रशांत के 16 देशों में भारत का शुमार चौथे सबसे भ्रष्ट देशों में होता है. आंकड़े कहते हैं कि कुल 169 देशों में भ्रष्टाचार के मामले में हम 84वें नंबर पर हैं.
आंकड़े ये भी बताते हैं कि 1992 से अब तक यानी महज 19 सालों में देश के 73 लाख करोड़ रुपए घोटाले की भेंट चढ़ गए. इतनी बड़ी रकम से हम 2 करोड़ 40 लाख प्राइमरी हेल्थसेंटर बना सकते थे. करीब साढ़े 14 करोड़ कम बजट के मकान बना सकते थे. नरेगा जैसी 90 और स्कीमें शुरू हो सकती थीं. करीब 61 करोड़ लोगों को नैनो कार मुफ्त मिल सकती थी. हर हिंदुस्तानी को 56 हजार रुपये या फिर गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे सभी 40 करोड़ लोगों में से हर एक को एक लाख 82 हजार रुपये मिल सकते थे. यानी पूरे देश की तस्वीर बदल सकती थी.
तस्वीर दिखाती है कि भारत गरीबों का देश है. पर दुनिया के सबसे बड़े अमीर यहीं बसते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो स्विस बैंक के खाते में सबसे ज्यादा पैसे हमारा जमा नहीं होता. आंकड़ों के मुताबिक स्विस बैंक में भारतीयों के कुल 65,223 अरब रुपये जमा है. यानी जितना धन हमारा स्विस बैंक में जमा है, वह हमारे जीडीपी का 6 गुना है.
आंकड़े ये भी बताते हैं कि भारत को अपने देश के लोगों का पेट भरने और देश चलाने के लिए 3 लाख करोड़ रुपये का कर्ज लेना पड़ता है. यही वजह है कि जहां एक तरफ प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है, वही दूसरी तरफ प्रति भारतीय पर कर्ज भी बढ़ रहा है. अगर स्विस बैंकों में जमा ब्लैक मनी का 30 से 40 फीसदी भी देश में आ गया तो हमें कर्ज के लिए आईएमएफ या विश्व बैंक के सामने हाथ नहीं फैलाने पड़ेंगे.
स्विस बैंक में भारतीयों का जितना ब्लैक मनी जमा है, अगर वह सारा पैसा वापस आ जाए तो देश को बजट में 30 साल तक कोई टैक्स नहीं लगाना पड़ेगा. आम आदमी को इनकम टैक्स नहीं देना होगा और किसी भी चीज पर कस्टम या सेल टैक्स नहीं लगेगा.
सरकार सभी गांवों को सड़कों से जोड़ना चाहती है. इसके लिए 40 लाख करोड़ रुपये की जरूरत है. अगर स्विस बैंक से ब्लैक मनी वापस आ गया तो हर गांव तक चार लेन की सड़क पहुंच जाएगी.
जितना धन स्विस बैंक में भारतीयों का जमा है, उसे उसका आधा भी मिल जाए तो करीब 30 करोड़ नई नौकरियां पैदा की जा सकती है. हर हिंदुस्तानी को 2000 रुपये मुफ्त दिए जा सकते हैं. और यह सिलसिला 30 साल तक जारी रह सकता है. यानी देश से गरीबी पूरी तरह दूर हो सकती है.
पर ऐसा हो इसके लिए आपका बदलना जरूरी है. वर्ना 'अन्ना हजारों' की मुहिम बेकार चली जाएगी.
दिल्ली का जन्तर-मंतर. यानी वह दहलीज़ जहां से देश का ग़ुस्सा अपने ज़िल्लेइलीही से फ़रियाद करता है. ये फ़रियादें दराबर के किस हिस्से तक पहुंचने में कामयाब होती हैं इसी बात से फ़रियाद के क़द और उसकी हैसियत का अंदाज़ा लगाया जाता है. लेकिन इस बार चोट थोड़ी गहरी है.
अन्ना देश के अन्ना हैं. इस बार जंतर मंतर पर ग़म और ग़ुस्से का अजीब संगम है. किसी को आम आदमी का त्योहार देखना हो तो उसे जंतर मंतर का नज़ारा ज़रूर करना चाहिये. हर तरफ़ बस एक ही शोर है कि शायद अन्ना का ये अनशन आम आदमी के हक़ में एक ऐसा क़ानून बना सके जिसके डर से भ्रष्टाचारी को पसीने आ जाएं. क्योंकि अन्ना के समर्थन में आने वालों का ये मानना है कि अन्ना जो कहते हैं सही कहते हैं.
जिन्हें शक है कि अन्ना ऑटोक्रेटिक हैं, निरंकुश हैं या सियासी लोग उन्हें इस्तेमाल कर लेते हैं. उन्हें जंतर-मंतर के इस ग़म और ग़ुस्से को क़रीब से महसूस करना चाहिये. ये भीड़ किसी वोट बैंक का हिस्सा नहीं बल्कि उनकी है जो भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं. अगर हम तंग आ चुके इन हज़ारों लोगों को किसी एक नाम से पुकारेंगे तो यक़ीनन वह नाम अन्ना ही होगा.
बहरहाल ये एक ऐसा आंदोलन है जिसकी आवाज़ को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि,
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना

Tuesday 16 August 2011

डरी हुई एक सरकार और अन्ना ‘हज़ारों’

सरकार की नीयत पर संदेह करने के पर्याप्त कारण हैं कि व्यवस्था में भ्रष्टाचार को बनाए रखना उसके लिए एक राजनीतिक मजबूरी है। कारण साफ़ है कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कोई भी कड़ी कार्रवाई पूरी व्यवस्था को हिलाकर रख सकती है। अत: लोकपाल विधेयक के मसौदे को तैयार करने को लेकर हुई बैठकों में सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले कानून-विशेषज्ञ नुमाइंदे सिविल सोसाइटी की मांगों का जिस तरह से विरोध कर रहे हैं उसे समझा जा सकता है। सरकार की मंशा सिविल सोसाइटी का नेतृत्व करने वालों को फिर से सड़कों पर धकेलने की ही ज़्यादा दिखाई देती है। अन्ना हज़ारे घोषणा कर चुके हैं कि सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि 30 जून के बाद लोकपाल मसौदा समिति की किसी भी बैठक में भाग नहीं लेंगे।
सरकार भ्रष्टाचार को कायम रखते हुए ही उसे समाप्त करने के संकल्प पारित करना चाहती है, जो कि संभव नहीं है। यूपीए सरकार द्वारा सत्ता में दो वर्ष पूरे करने पर जनता के लिए जारी रिपोर्ट में श्रीमती सोनिया गांधी ने ये कहा है कि ‘हम भ्रष्टाचार की समस्या का डटकर मुक़ाबला करेंगे और शब्दों से नहीं बल्कि कर्म के माध्यम से यह दिखा देंगे कि हम इस दिशा में ईमानदारी से काम करना चाहते हैं।’ पर पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय, न्यायपालिका, संसद में सदस्यों के आचरण और व्यवस्था को दीमक की तरह खोखला करने वाले भ्रष्ट अधिकारियों को अगर सरकार लोकपाल के दायरे से बाहर रखना चाहती है तो फिर भ्रष्टाचार का ख़ात्मा वह किन स्थानों से और किस तरह से करना चाहती है। सरकार बहुत अच्छे से जानती है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सिविल सोसाइटी की मांगों के सामने घुटने टेकने का मतलब अपने समूचे तंत्र को जनता की जांच के लिए खोल देना होगा और कोई भी व्यवस्था ऐसा होना तब तक स्वीकार नहीं करना चाहेगी जब तक कि जनता की कोई महाशक्ति अपने आंदोलन के ज़रिए उसे ऐसा करने के लिए मजबूर ही नहीं कर दे।
इसमें तो कोई शक नहीं बचा है कि सरकार डरी हुई है। मध्य-पूर्व और अफ्रीकी देशों में परिवर्तनों के लिए व्यक्त हो रहे जनाक्रोश और हमारे यहां सिविल सोसाइटी में भ्रष्टाचार और काले धन के ख़िलाफ़ मच रही हलचल का ही परिणाम है कि पहले अन्ना हज़ारे के अनशन को समाप्त कराया गया और अब रामदेव को मोर्चा न खोलने के लिए मनाया जा रहा है। सरकार और अन्य राजनीतिक दलों के गले उतरना अभी बाकी है कि भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ आक्रोश जंतर-मंतर से बाहर निकलकर काफी दूर जनता के बीच देश के गांव-गांव तक पहुंच चुका है। अन्ना हज़ारे अब अण्णा हज़ारों में परिवर्तित हो चुके हैं।
सिविल सोसाइटी का एक चिंताजनक पक्ष यह भी है कि जहां एक ओर सरकार संवैधानिक ढांचे की आड़ लेकर मूल मुद्दों का सामना करने से मुंह चुरा रही है, विपक्षी राजनीतिक दल भी लोकपाल विधेयक से संबद्ध मुद्दों का केवल दबी ज़ुबान से ही समर्थन कर रहे हैं, खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं। कारण साफ है कि हमाम में सब नंगे हैं। सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच जिन मुद्दों पर मतभेद हैं वे केंद्र में स्थापित होने वाली भविष्य की सभी सरकारों और राज्य सरकारों के हितों पर भी प्रहार करने वाले हैं।
सभी तरह के भ्रष्टाचारों और सांसदों/विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त के ज़रिए बनने वाली सरकारें अपने आपको लोकपाल की कड़ी निगरानी में सुपुर्द करने के लिए आसानी से तैयार नहीं होंगी। पी. चिदंबरम और कपिल सिब्बल अगर कहते हैं कि लोकपाल के गठन को लेकर सरकार की नीयत साफ है तो वैसा नजर भी आना चाहिए।

Tuesday 26 April 2011

भारत ने 9 साल में गंवाए 4,725 अरब रुपये

विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन को वापस लाने की मांग फिर से जोर पकड़ रही है, देश से धन की अवैध निकासी के बारे में कुछ चौंकाने वाली बातें एक अमेरिकी रिपोर्ट में सामने आई हैं। ग्लोबल फाइनेंशल इंटीग्रिटी नाम के थिंक टैंक की इस रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2000 से 2008 के बीच करीब 104 अरब डॉलर (करीब 4,725 अरब रुपये से ज़्यादा) धन अवैध तरीके से भारत से बाहर गया है। अगर इस रकम की तुलना हम भारत के बजट के संदर्भ में करें तो यह 2010-11 के लिए तय एजुकेशन बजट के भी करीब दस गुना ठहरता है।

नौ साल में धन की अवैध निकासी के मामले में एशिया के पांच अव्वल देशों में भारत का पांचवां नंबर था, जबकि चीन पहले, मलयेशिया दूसरे, फ़िलिपीन तीसरे और इंडोनेशिया चौथे नंबर पर 
है। 

Sunday 24 April 2011

युवाओं में नई जागरूकता

अन्ना हज़ारे के आंदोलन ने अचानक युवाओं को जिस तेज़ी से अपनी ओर खींचा, उससे राजनीतिक दिग्गज़ भी हैरान रह गए। आज हमारा युवा ख़ुद से बहुत ज़्यादा उम्मीद रखता है। वह काफ़ी कुछ पाना चाहता है। कई बार उसे पता नहीं होता कि सही रास्ते कौन-से हैं। यह बताने वाला सही रोल मॉडल भी युवा के पास नहीं है।

अन्ना हज़ारे के आंदोलन ने युवाओं को आकर्षित किया तो कुछ ख़ास वजहें थीं। अन्ना ने सीधी-साफ़ और दो टूक चीज़ की मांग की - जन लोकपाल बिल। उनकी भूख हड़ताल एक रियलिटी ड्रामे की तरह थी। ड्रामा लोगों को खींच रहा था। तीसरी बात यह कि कुछ ऐसी हस्तियां उनके साथ थीं जिनका अपना संगठन है और जिन्हें युवा आइडल मानता है जैसे किरण बेदी, श्रीश्री रविशंकर, बाबा रामदेव। अन्ना ने सीधे-सीधे अच्छाई और बुराई के बीच लकीर खींच दी। बिना किसी डर या दुर्भावना के उन्होंने इस लकीर की दूसरी तरफ़ खड़े नेताओं की ओर इशारा किया।

इसने भी आग में घी का काम किया। सबसे अहम बात यह कि भ्रष्टाचार से पूरा देश त्रस्त है, जिससे युवा देश के अन्य लोगों की तरह आंदोलन की तरफ़ खिंचा चला आया। ख़ुद अन्ना के सीधे-सादे और ईमानदार व्यक्तित्व का भी इसमें योगदान था। वह सत्ताधारियों के साथ नहीं खड़े थे। राजनीतिज्ञों को खदेड़े जाने ने भी बिजली सरीखा असर किया। इससे युवा में यह संदेश गया कि यह बंदा जनता के लिए काम करेगा। इसका निजी कोई स्वार्थ नहीं। कॉमनवेल्थ खेल के वक़्त से ही घोटालों का जो सिलसिला शुरू हुआ, तभी से सभी के अंदर एक गुस्सा था कि तुमने देश का नाम ख़राब क्यों किया। 
सरकार हफ़्ते की देरी करती तो यह बड़ा रूप ले सकता था और ख़तरनाक हो सकता था। अहम बात यह है कि बीस-पच्चीस साल पहले जन्मे युवा ने इस आंदोलन के ज़रिये राजनीति का पहला स्वाद चखा है। उसने कम से कम अपनी ताकत को पहचाना है। ज़रूरत इस बात की है कि वह इस ताकत का सही इस्तेमाल भी जाने।

लोगों को बदलाव चाहिए। ख़ास तौर पर युवाओं को तुरंत बदलाव चाहिए। बदलाव शांति से नहीं आता तो युवाओं का क्रोध हिंसा में बदल जाता है। आंदोलन से युवाओं की सोच में ज़बरदस्त बदलाव आया है। आज छोटे-छोटे बच्चे अन्ना हज़ारे को गांधी के रूप में देखते हैं। अन्ना बापू की तरह अड़ियल भी है, नर्म भी, निडर भी।

जन लोकपाल बिल भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अहम बिल है। कई देशों में ऐसी ही निष्पक्ष और ताकतवर संस्था भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे सत्ताधीशों की जांच करती है। हांगकांग का उदाहरण सामने है। आज़ादी का मतलब यह नहीं कि यह सत्ताधीशों की आज़ादी है। एक बार चुने गए तो आप ख़ुद ही पुलिस स्टेशन हैं और ख़ुद ही कानून हैं। आज़ादी का यह मतलब नहीं कि सत्ताधारियों पर अंकुश के कानून न बनाए जाएं।

इस आंदोलन से अगर युवाओं और लोगों ने पॉवर का स्वाद चखा है, तो नेताओं ने पॉवर की सीमा का स्वाद चखा है। अगर प्रभावी लोकपाल के गठन में गतिरोध आता है, तो युवा तभी फिर अन्ना के आंदोलन में उतरेंगे जब अन्ना यह बताने में सफल रहें कि क्या ग़लत हुआ है और कौन लोग असरदार लोकपाल नहीं बनने दे रहे हैं। तब निश्चय ही लोग फिर जुड़ेंगे। हालांकि यह ठीक इसी स्तर पर शायद न हो।

एक बार जो हो जाता है, वह वैसा ही दोबारा घटित नहीं होता। अगले आंदोलन की शक्ल अलग होगी। वैसे सरकार अब ऐसा कुछ नहीं करेगी कि अन्ना को फिर अनशन जैसा निर्णय लेना पड़े, क्योंकि नेताओं में डर पैदा हो गया है कि अगर वे भ्रष्टाचार के समर्थन में खड़े दिखाई दिए तो उनके नीचे से समर्थन खिसक जाएगा। प्रभावी लोकपाल जनता का हक है, अब जनता को बहलाया-फुसलाया नहीं जा सकता, यह नेता समझ चुके हैं।

इस आंदोलन को राजनीतिज्ञों के ऊपर अंकुश की तरह काम करना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि इसका स्वरूप और शक्ति ऐसी है कि यह एक और राजनीतिक पार्टी बन जाए। यह पार्टियों पर दबाव बनाए रखने का रचनात्मक काम कर सकता है। यदि अच्छा लोकपाल हो और कई भ्रष्ट नेता जेल जाएं, तो भ्रष्टाचार के ख़त्म होने की संभावना अभी बनी हुई है। यदि हर साल हर पार्टी अपने यहां से दस प्रतिशत सबसे भ्रष्ट नेताओं को निकालती जाए और दस प्रतिशत सही उम्मीदवार चुने, तो संभव है कि अगले दस सालों में पार्टियों का नया रंगरूप हो।

इसके लिए कई अन्य चीज़ें करने की ज़रूरत है। मिसाल के लिए, चुनावों के दौरान लीगल एलेकशन फंडिंग का एक तरीका हो, जिससे चुनाव में काले-सफेद धन को लेकर पारदर्शिता आए। ज़मीनी राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए भी वाजिब सेलेरी या पारिश्रमिक हो, ताकि वह दूसरे ग़लत फ़ायदों के लिए पार्टियों के साथ न जाए। इन सब चीजों के लिए वातावरण और दबाव बनाने का काम यह आंदोलन करे, न कि ख़ुद एक राजनीतिक पार्टी बने।

Saturday 23 April 2011

भारत विकास की राह पर

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) में लक्ष्य होगा आर्थिक विकास की सालाना दर 9 से 9.5 फीसदी रखना, 100 फीसदी साक्षरता दर हासिल करना और विकास को समावेशी बनाना। इन लक्ष्यों से सहमत होते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का सुझाव है कि विकास को समावेशी बनाने के लिए अगली योजना में लक्ष्य ऐसे तय होने चाहिए, जिनकी निगरानी की जा सके। फिर उचित नीति एवं कोष आवंटन के साथ उन लक्ष्यों को पाने की कोशिश की जानी चाहिए।

11वीं योजना में भारत ने ऊंची आर्थिक विकास दर हासिल की। अंतरराष्ट्रीय मंदी और सूखे की स्थितियों के बावजूद यह दर 8.2 फीसदी रही। इस सफलता ने भारत को एक मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया है। फिर भी यह कामयाबी अधूरी लगती है, क्योंकि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी बेहद गरीब है। जिस दिन योजना आयोग की पूर्ण बैठक में प्रधानमंत्री ने विकास को समावेशी बनाने पर जोर दिया, उसके ठीक एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आगाह किया था कि हम दो तरह के भारत को कायम नहीं रहने दे सकते।

हम दुनिया को बताना चाहते हैं कि भारत दुनिया की सबसे मजबूत उभरती अर्थव्यवस्था है, लेकिन करोड़ों गरीबों की मौजूदगी विरोधाभास पैदा करती है। इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने गरीबी मापने की योजना आयोग की कसौटियों की भी आलोचना की, मगर यह विडंबना ही है कि उसी दिन योजना आयोग ने एलान किया कि देश में गरीबों की संख्या पांच फीसदी गिरकर अब 32 फीसदी रह गई है। सरकार समावेशी विकास की बात करती है, लेकिन इस बुनियादी पहलू को वह आज तक हल नहीं कर सकी है। क्या बारहवीं योजना के दौरान यह हो सकेगा? यदि नहीं तो फिर तमाम तय लक्ष्य हासिल होने के बावजूद दो तरह के भारत के बीच की खाई नहीं पाटी जा सकेगी और हमारे विकास की कहानी अधूरी रहेगी।

दो राष्ट्रपति के बीच ऐसा संयोग


अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन और जॉन एफ़ केनेडी, इन दोनों की ही उनके पद पर रहते हत्या कर दी गई थी। इन दोनों को ही देश की जनता अपना हीरो मानती थी, लेकिन कुछ लोग थे जो इनके विचारों से सहमत नही थे।
जब 22 नवम्बर 1963 को जॉन एफ़ कैनेडी की हत्या की गई तो अचानक ही अब्राहम लिंकन की हत्या के साथ इनकी तुलना की जाने लगी। और इसके बाद जो तथ्य सामने आए वो एक अनोखे संयोग की कहानी बयां करते हैं।
- लिंकन 1846 में कांग्रेस के लिए निर्वाचित हुए थे जबकि ठीक 100 साल बाद यानि 1946 को कैनेडी भी कांग्रेस के लिए निर्वाचित हुए।
- लिंकन 1860 में अमेरिका के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए जबकि 1960 में कैनेडी भी इसी पद पर सत्तासीन हुए।
- दोनों ही राष्ट्रपतियों की पत्नियों ने वाइट हाउस प्रवास के दौरान अपने एक बच्चे को खो दिया था।
- लिंकन को अमेरिका में नागरिक अधिकारों के लिए जाना जाता था जबकि कैनेडी ने भी नागरिक अधिकारों के लिए गंभीर प्रयास किए।
- लिंकन का एक सचिव हुआ करता था जिसका नाम कैनेडी था जबकि  कैनेडी के सचिव का नाम लिंकन था।
- दोनों ही राष्ट्रपतियों की हत्या उनकी पत्निओं की मौजूदगी में की गई।
- दोनों की मौत सिर के पिछले हिस्से में गोली लगने से हुई।
- दोनों के ही हत्यारों के तीन उपनाम थे और उनके नाम में अंग्रेजी के पंद्रह लेटर थे।
- लिंकन को थिएटर के अंदर गोली लगी और वो गिरते हुए बाहर आए थे जबकि कैनेडी गोली लगने के बाद गिरते हुए थिएटर के अंदर गए थे।
- दोनों के ही हत्यारों की ट्रायल पर जाने से पहले ही हत्या कर दी गई थी।
- ऐसा माना जाता है कि दोनों राष्ट्रपतियों की हत्या के पीछे एक भीषड़ षड़यंत्र था।
- दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों के सरनेम भी एक थे। लिंकन के उत्तराधिकारी का नाम एंड्रयू जॉनसन था जबकि कैनेडी का उत्तराधिकारी लिंडन जॉनसन था।